BA Semester-1 Philosophy - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2633
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र

प्रश्न- प्रमा को परिभाषित करते हुए प्रमा के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।

अथवा
ज्ञान के साधन के रूप में प्रमा का उल्लेख कीजिए।
अथवा
प्रमा के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

 

प्रमा

यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। प्रमा तत्वानुभव है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु जैसी है, उसका उसी रूप में ज्ञान होना तत्वानुभव है। दूसरे शब्दों में तत्वानुभव किसी वस्तु का अपने स्वरूप में ज्ञान प्रमा है। यदि बालू के रेतीले मैदान को हम बालू का मय समझते हैं तो यह अनुभव प्रमा है।

जो वस्तु जैसी हो उसे उसी प्रकार ही जानना, जो वस्तु जहाँ हो उसको वहीं का जानना अर्थात् पदार्थ की उसके वास्तविक रूप में प्रतीति करना ही प्रमा है।

वाचस्पति मिश्र के अनुसार 'स्मृति' से भिन्न तथा पदार्थों का अव्यभिचरित बोध को ही प्रमा कहा जाता है, पर ऐसा मानने पर धारावाहिक ज्ञान प्रमा की कोटि में नहीं आ पायेगा। कहा जा सकता है कि धारावाहिक ज्ञान में घटत्व के साथ 'इदंत्व' अर्थात् पदार्थ के साथ वर्तमान काल का भी ज्ञान होता है, अतः ज्ञान कालांश में नवीन है, पर इस तरह तो क्रिया विभाग, पूर्व संयोगनाश, अन्तर संयोग आदि का योग .दर्शनशास्त्र / 91 पद्य मानने में कठिनाई होगी। अतः यह कथन अनुचित है। मीमांसकों ने भी धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण माना है। प्रमा के कारण तो प्रमाता, प्रमेय आदि भी हैं, परन्तु उनमें से क्रिया की सिद्धि में असाधारण रूप से उपकारक कारण को ही कारण कहते हैं। एक अन्य परिभाषा के अनुसार व्यापार से युक्त असाधारण कारण ही करण कहलाता है। जैसे प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में इन्द्रिय संयोग प्रतिशयित प्रकृष्ट कारण है। क्योंकि इन्द्रिय-संयोग न हो तो प्रमाता और प्रमेय के रहते हुए भी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता।

प्रमा का स्वरूप - प्रमा का स्वरूप ज्ञानशास्त्रीय दृष्टि से विवादास्पद है। इसके स्वरूप को लेकर न्याय और मीमांसा आमने-सामने है। विश्लेषण करने पर प्रमा का अर्थ प्रकृष्ट या यथार्थ ज्ञान ( प्र का अर्थ प्रकृष्ट और या का अर्थ ज्ञान) है। व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान अनुभव है जो दो प्रकार का होता है, यथार्थ (प्रमा) और अयथार्थ (अप्रमा)। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ज्ञान व्यावहारिक अथवा अनुभवात्मक है जिससे हमारा लौकिक व्यवहार सम्पन्न होता है। इसकी उपलब्धि हमें बुद्धि (मन) के माध्यम से होती है और जिसे हम बोध विषय कहते हैं। यह पारमार्थिक ज्ञान नहीं जो तत्व बोध या ब्रह्म बोध है। ब्रह्म बोध और विषय-बोध दोनों ज्ञानरूप ही हैं। परन्तु दोनों का स्तर एक नहीं। पहले का अधिष्ठान या आश्रय-इन्द्रिय, मन, बुद्धि नहीं वरन् आत्मा है। आत्मज्ञान या ब्रह्म बोध बुद्धि की सीमाओं के परे है।

इस आत्मज्ञान या ब्रह्म बोध को विषय-बोध मान लेना तो बौद्धिक भ्रान्ति है। दूसरी ओर विषय-बोध तो व्यावहारिक ज्ञान है जिसके लिए विषय, इन्द्रिय, मन आदि के संयोग की अपेक्षा है। पहला तो अवाङ्गमनसं गोचर है। प्रस्तुत संदर्भ में हम व्यावहारिक ज्ञान को ही प्रमा, अप्रमा कहते हैं जो यथार्थ और अयथार्थ अनुभव रूप ही है। पहला वस्तु या विषय की यथावत् प्रतीति है अथवा वस्तु का स्वरूप में प्रतीति है जैसे- बालू के रेतीले मैदान का बालुकामय प्रतीति। (दूसरा या अप्रमा रूप किसी वस्तु का पररूप में प्रतीति है) जैसे- बालू की राशि की जल की धारा रूप में प्रतीति।

आचार्य कुमारिल भी न्याय के समान वस्तुवादी या यथार्थवादी ही माने जा सकते हैं, परन्तु आचार्य की यथार्थ प्रतीति या प्रमा न्याय से भिन्न है। आचार्य के अनुसार अनधिगतोथगन्तृत्व प्रमा है अर्थात् यथार्थ ज्ञान अनधिगत विषय का ग्रहण करने वाला ज्ञान है। उदाहरणार्थ किसी घड़े को जब हम पहले पहल देखते हैं तो वह घट ज्ञान प्रमा है, क्योंकि यह अज्ञात या अनधिगत अर्थ को ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रमा का प्रमात्व इस बात पर निर्भर है कि वह किसी नये विषय को ग्रहण करे। यदि विषय नया नहीं पुराना ही है अर्थात् अज्ञात नहीं ज्ञात है तो वह साधारण ज्ञान या केवल या होगा, उसमें प्रकर्ष नहीं। अतः वह प्रमा नहीं। न्याय मीमांसा से बहुत दूर नहीं। न्याय में यथार्थ अनुभव को स्मृति भिन्न माना गया है। इसका अभिप्राय स्पष्ट है कि अनधिगत अर्थ, स्मृति भिन्न का ग्रहण करने वाला ज्ञान ही प्रमा है। यदि ऐसा न हो तो न्याय के अनुसार यथार्थ अनुभव को प्रमा और यथार्थ स्मृति को प्रमा भिन्न स्वीकार करने का औचित्य क्या है? दोनों में अन्तर तो केवल इतना ही है कि अनुभव अज्ञात अर्थ को ग्रहण करता है और सतति पूर्व ज्ञात अर्थ को ग्रहण करती है। इस प्रकार न्याय के प्रमा लक्षण में 'अनधिगतार्थ के ग्रहण' का शब्दतः तो नहीं, परन्तु तात्पर्यतः सन्निवेश हो जाता है। परन्तु न्याय के विद्वान मीमांसा के 'अनधिगत विषय' को प्रमा नहीं मानते। न्याय के अनुसार मीमांसा के प्रमा लक्षण में व्याप्ति दोष है, जिसे धारावाहिक ज्ञान में स्पष्टता देखा जा सकता है। धारावाहिक ज्ञान जैसे एक ही घर का अव्यावहित क्रम से दर्शन करना आदि में विषय तो एक ही ( घट) रहता है परन्तु इसमें विषय सम्बन्धी अनेक ज्ञान सम्मिलित रहते हैं ऐसे ज्ञान को सभी शास्त्र प्रमा मानते हैं। यदि मीमांसा के अनाधिगत ज्ञान को ही प्रमा मान लिया जाय तो घट के धारावाहिक ज्ञान प्रथम ज्ञान तो प्रमा रूप होगा, परन्तु दूसरे, तीसरे ज्ञान में वह विषय तो अनधिगत न होकर अधिगत ही होगा। अतः दूसरे तीसरे ज्ञान में अव्याप्ति दोष होगा। मीमांसक लोग भी धारावाहिक ज्ञान को प्रमा मानते हैं। यह कैसे? मीमांसा दर्शन का उत्तर यह है कि धारावाहिक ज्ञानों का आकार घटः, घटः, घट नहीं है, वरन् घटोडयम्-घटोडयम् है। इसमें घट का ज्ञान और अयं का ज्ञान सम्मिलित है। अयं तत्तत् क्षण रूप का ज्ञान है। यह क्षणात्मिक सूक्ष्मकाल खण्ड का ज्ञान है जैसे घट अ, घट ब, घट स अथवा घट 1, 2, 3 | यह इदन्त्व का ज्ञानं है जिसका ग्रहण घट के साथ ही होता है। इस प्रकार घट, घट 1, घट 2 और घट 3 का ज्ञान विभिन्न कालखण्डों के साथ भिन्न घट का ज्ञान है। अतः क्षण अंशों के साथ ग्रहण होने वाला ज्ञान विभिन्न प्रकार के घटों का ज्ञान है। घट 1 यदि श्याम रंग 4 के घट का ज्ञान  है तो घट 2 लाल रंग के घट का ज्ञान है। अतः घट 1 जैसे अज्ञातविषयक है वैसे ही घट 2 भी। इसमें अव्यात्रिदोष नहीं। दोनों ज्ञान प्रमारूप है। न्याय की ओर यहाँ पुनः एक आक्षेप है कि प्रत्यक्षात्मक धारावाहिक ज्ञानों को सूक्ष्म कालखंड का ग्राहक नहीं माना जा सकता। क्रिया, विभाग, पूर्व संयोगनाश और उत्तर संयोग चारों में कार्य-कारण भाव है। इनमें पहला दूसरे का कारण है और दूसरा पहले का कार्य कारण और कार्य में कालभेद स्वभावतः होता है। चारों भिन्न-भिन्न अव्यहित क्षणों से उत्पन्न होते हैं। परन्तु ये से क्षण अत्यन्त सूक्ष्म हैं, अतः इनमें भिन्नता की प्रतीति नहीं होती और एककालीन होने का भ्रम उत्पन्न होता है। परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान में सूक्ष्मकाल खंडों का ग्रहण नहीं होता। अतः दूसरे तीसरे क्षणों के घट ज्ञान को अज्ञात विषयक मानकर प्रमा नहीं माना जा सकता। न्याय की ओर से यह भी कहा जाता है कि यदि अज्ञात विषयक ज्ञान को प्रमा माना जाय तो प्रमा का प्रकर्ष क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि प्रमा, अप्रमा आदि ज्ञान भेदों के अतिरिक्त कोई सामान्य ज्ञान नहीं होता और प्रमा के प्रकर्ष और पृथक होने में दो बातें ही केवल हैं। पहली बात यह है कि प्रमा किसी वस्तु की स्वरूप में प्रतीति है। अतः प्रमा में वस्तु का अन्यथा रूप ग्रहण ही नहीं होता। दूसरी बात यह है कि प्रमा से प्रवृत्त होने वाला पुरुष अपने प्रयत्न में सफल होता है और अप्रमा से प्रवृत्ति पुरुष विफल।

न्याय के अनुसार यथार्थ अनुभव को प्रमा और यथार्थ स्मृति को प्रमा भिन्न कहा गया है। इसका आधार यह है कि अनुभव और स्मृति दोनों यथार्थ और अयथार्थ रूप से दो हैं इस प्रकार अनुभव यथार्थ होता है तो स्मृति भी यथार्थ होती है। यथार्थ होना तो दोनों में समान ही है, दोनों में भेद कैसे? भेद इस प्रकार है कि अज्ञात विषयक होने से अनुभव प्रमा और ज्ञात विषयक होने से सतति अप्रमा है। सुप्रसिद्ध नैयायिक श्री वाचस्पति मिश्र का कहना है कि अनुभव और स्मृति का भेद लोक व्यवहार है। लोक में यथार्थ अनुभव को ही प्रमा कहा जाता है, यथार्थ स्मृति को नहीं। इस लोक व्यवहार की व्याख्या अनधिगत विषयक प्रमा से नहीं हो सकती, क्योंकि धारावाहिक ज्ञान में दूसरे, तीसरे क्षणों में अनधिगत विषयक न होने पर भी प्रमा शब्द का व्यवहार होता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  2. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  3. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  4. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  5. प्रश्न- क्या भारतीय दर्शन जीवन जगत के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण अपनाता है? विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- क्या भारतीय दर्शन जीवन जगत के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण अपनाता है? विवेचना कीजिए।
  7. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  8. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  9. प्रश्न- दर्शन के सम्बन्ध में भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोणों की व्याख्या कीजिए।
  10. प्रश्न- दर्शन के सम्बन्ध में भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोणों की व्याख्या कीजिए।
  11. प्रश्न- भारतीय वेद के सामान्य सिद्धान्त बताइए।
  12. प्रश्न- भारतीय वेद के सामान्य सिद्धान्त बताइए।
  13. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  14. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  15. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  16. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिये।
  18. प्रश्न- भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिये।
  19. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  20. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  21. प्रश्न- चार्वाक दर्शन में तत्व सम्बन्धी बातों पर निबन्ध लिखिये।
  22. प्रश्न- चार्वाक दर्शन में तत्व सम्बन्धी बातों पर निबन्ध लिखिये।
  23. प्रश्न- चार्वाक दर्शन के ईश्वर सम्बन्धी विचार दीजिए।
  24. प्रश्न- चार्वाक दर्शन के ईश्वर सम्बन्धी विचार दीजिए।
  25. प्रश्न- चार्वाक दर्शन में प्रमाण विचारों का अर्थ बताइए तथा साधनों का वर्णन कीजिए।
  26. प्रश्न- चार्वाक दर्शन में प्रमाण विचारों का अर्थ बताइए तथा साधनों का वर्णन कीजिए।
  27. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिये।
  28. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिये।
  29. प्रश्न- चार्वाक के भौतिक स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
  30. प्रश्न- चार्वाक के भौतिक स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
  31. प्रश्न- चार्वाक की तत्व मीमांसा का स्वरूप क्या है?
  32. प्रश्न- चार्वाक की तत्व मीमांसा का स्वरूप क्या है?
  33. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  34. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  35. प्रश्न- ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्रमाणों की व्याख्या कीजिए।
  36. प्रश्न- चार्वाक दर्शन के प्रत्यक्ष प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  37. प्रश्न- चार्वाक दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार दीजिए।
  38. प्रश्न- सुख प्राप्ति ही जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। बताइये।
  39. प्रश्न- चार्वाक के ज्ञान सिद्धांत की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।
  40. प्रश्न- "चार्वाक की तत्वमीमांसा उसकी ज्ञान मीमांसा पर आधारित है।" विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- जैन महावीर के जीवन वृत्त तथा शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
  42. प्रश्न- भारतीय संस्कृति में जैन धर्म के योगदान का वर्णन कीजिए।
  43. प्रश्न- जैन दर्शन में स्याद्वाद किसे कहते हैं?
  44. प्रश्न- जैन दर्शन के सात वाक्य भंगीनय लिखिए।
  45. प्रश्न- सात वाक्यों का आलोचनात्मक दृष्टिकोण से वर्णन कीजिए।
  46. प्रश्न- जैनों के बन्धन तथा मोक्ष सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  47. प्रश्न- जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य का परिचय दीजिये।
  48. प्रश्न- द्रव्य के प्रकार बताइये।
  49. प्रश्न- द्रव्य को आकृति द्वारा स्पष्ट कीजिए।
  50. प्रश्न- जीव अथवा आत्मा किसे कहते हैं?
  51. प्रश्न- अजीव द्रव्य क्या है? व्याख्या कीजिए।
  52. प्रश्न- जैन दर्शन में जीव का स्वरूप क्या है?
  53. प्रश्न- जैन दर्शन के द्रव्य सिद्धान्त की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।
  54. प्रश्न- जैन धर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- जैन धर्म के पतन के कारण स्पष्ट कीजिए।
  56. प्रश्न- जैन धर्म व बौद्ध धर्म में समानताओं और असमानताओं का तुलनात्मक परीक्षण कीजिए।
  57. प्रश्न- जैन धर्म की शिक्षाएँ क्या थीं?
  58. प्रश्न- पुद्गल किसे कहते हैं?
  59. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र और धर्म पर टिप्पणी लिखिए।
  60. प्रश्न- जैन धर्म के पाँच महाव्रत बताइए।
  61. प्रश्न- जैन धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय बताइए।
  62. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  63. प्रश्न- सांख्य की 'प्रकृति' तथा वेदान्त की 'माया' के बीच सम्बन्ध की व्याख्या कीजिये।
  64. प्रश्न- गौतम बुद्ध के जीवन एवं उपदेशों का वर्णन कीजिए।
  65. प्रश्न- बौद्ध धर्म के उत्थान व पतन के क्या कारण थे? समझाइये।
  66. प्रश्न- भारतीय संस्कृति में बौद्ध धर्म का योगदान बताइये।
  67. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या आशय है?
  68. प्रश्न- बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्यों की विवेचना कीजिए।
  69. प्रश्न- बुद्ध ने कौन से दुःख के कारणों के चक्र बताए? बौद्ध दर्शन के तृतीय आर्य सत्य की विवेचना कीजिये।
  70. प्रश्न- बौद्ध धर्म पर लेख प्रस्तुत कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय लिखिए।
  72. प्रश्न- क्षणिकवाद का सिद्धान्त क्या है?
  73. प्रश्न- बौद्ध धर्म के महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डालिए।
  74. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  75. प्रश्न- बौद्ध दर्शन में निर्वाण की व्याख्या कीजिये।
  76. प्रश्न- बौद्ध संगीतियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  77. प्रश्न- महाजनपदों के नाम लिखिए।
  78. प्रश्न- बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या हैं?
  79. प्रश्न- भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की क्या देन थी?
  80. प्रश्न- क्या बौद्ध दर्शन निराशावादी है?
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति की विशेषताएँ लिखिए।
  82. प्रश्न- सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति के गुणों की व्याख्या कीजिए।
  83. प्रश्न- सत्, रज और तम गुण किसे कहते हैं?
  84. प्रश्न- प्रकृति के गुणों के क्या परिणाम होते हैं?
  85. प्रश्न- सांख्य दर्शन के अनुसार सत्कार्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  86. प्रश्न- सांख्य दर्शन के तत्व सम्बन्धी विचार लिखिए।
  87. प्रश्न- प्रकृति तथा पुरुष का अर्थ तथा सम्बन्ध बताइए।
  88. प्रश्न- ज्ञानेन्द्रियों की व्याख्या कीजिए।
  89. प्रश्न- पुरुष के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। पुरुष के अस्तित्व के लिए सांख्य द्वारा दिये गये तर्कों की विवेचना कीजिए।
  90. प्रश्न- सांख्य दर्शन की समीक्षा कीजिए।
  91. प्रश्न- सांख्य ज्ञानमीमांसा की विवेचना कीजिए।
  92. प्रश्न- सांख्य दर्शन के पुरुष की अनेकता की विवेचना कीजिए।
  93. प्रश्न- योग दर्शन से क्या तात्पर्य है? समझाइये।
  94. प्रश्न- पंतजलि ने योग सूत्रों को कितने भागों में बाँटा?
  95. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  96. प्रश्न- योग दर्शन के अभ्यास के अंग कौन-कौन से हैं?
  97. प्रश्न- योग दर्शन में तीन मार्ग कौन से हैं?
  98. प्रश्न- योग के अष्टांग साधन बताइए।
  99. प्रश्न- योगांग किसे कहते हैं?
  100. प्रश्न- योग दर्शन के पाँच नियमों की व्याख्या कीजिए।
  101. प्रश्न- योग' से आप क्या समझते हैं? योग साधना के विभिन्न सोपानों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  102. प्रश्न- योग दर्शन में ईश्वर के स्वरूप की विवेचना कीजिए।
  103. प्रश्न- योग दर्शन में ईश्वर के स्वरूप की विवेचना कीजिए तथा उसके अस्तित्व को सिद्ध करने सम्बन्धी प्रमाणों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  104. प्रश्न- वैराग्य क्या है? इसकी भेदों सहित व्याख्या कीजिए।
  105. प्रश्न- न्याय दर्शन से ईश्वर किन रूपों में कार्य करता है।
  106. प्रश्न- न्याय दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण लिखिए।
  107. प्रश्न- न्याय दर्शन की भूमिका प्रस्तुत कीजिए तथा न्यायशास्त्र का महत्त्व बताइये? तथा न्यायशास्त्र का प्रमाण शास्त्र का वर्णन कीजिए।
  108. प्रश्न- प्रमाण शास्त्र की व्याख्या कीजिए।
  109. प्रश्न- भारतीय तर्कशास्त्र में हेत्वाभास के प्रकार बताइए।
  110. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान' के स्वरूप और प्रकारो की व्याख्या कीजिये।
  111. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार सोलह पदार्थों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- प्रमा को परिभाषित करते हुए प्रमा के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  113. प्रश्न- प्रमा की परिभाषा दीजिए तथा उसके सामान्य लक्षणों पर प्रकाश डालिए।
  114. प्रश्न- प्रमाण की परिभाषा देते हुए प्रमाण के प्रमुख प्रकारों का विवेचन कीजिए।
  115. प्रश्न- न्याय के आलोक में पदार्थ के विभिन्न प्रकारों का विवेचन कीजिए।
  116. प्रश्न- शब्द-प्रमाण में शब्द को स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है विवेचन कीजिए।
  117. प्रश्न- उपमान प्रमाण के स्वरूप का विवेचन करते हुए इसकी परिभाषा दीजिए।
  118. प्रश्न- 'न्याय दर्शन' में 'अनुमान प्रमाण के स्वरूप की व्याख्या कीजिए एवं अनुमान प्रमाण के प्रकारान्तर भेदों का उल्लेख कीजिए।
  119. प्रश्न- अनुमान क्या है? परमार्थानुमान व स्मार्थानुमान को स्पष्ट कीजिए।
  120. प्रश्न- प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वरूप क्या है?
  121. प्रश्न- न्यायदर्शन में निर्विकल्प प्रत्यक्ष का स्वरूप समझाइये।
  122. प्रश्न- न्यायदर्शन में उपमान प्रमाण का क्या स्वरूप है? न्याय दर्शन में उपमान प्रमाण का स्वरूप
  123. प्रश्न- चार्वाक दर्शन में अनुमान प्रमाण का खंडन किस प्रकार करता है?
  124. प्रश्न- अनुमान प्रमाण में व्याप्ति की भूमिका समझाइये।
  125. प्रश्न- प्रमा और अप्रमा के भेद को स्पष्ट कीजिए।
  126. प्रश्न- न्याय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकार किए गए हैं? सभी का वर्णन कीजिए।
  127. प्रश्न- समानतन्त्र के रूप में न्याय वैशेषिक की व्याख्या कीजिए।
  128. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों के नाम लिखिये।
  129. प्रश्न- वैशेषिक द्रव्यों की व्याख्या कीजिए।
  130. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में कितने गुण होते हैं?
  131. प्रश्न- कर्म किसे कहते हैं? व्याख्या कीजिए।
  132. प्रश्न- सामान्य की व्याख्या कीजिए।
  133. प्रश्न- विशेष किसे कहते हैं? लिखिए।
  134. प्रश्न- समवाय किसे कहते हैं?
  135. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में अभाव क्या है?
  136. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन क्या है? न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन में आपस में क्या सम्बन्ध है? वैशेषिक दर्शन में सात प्रकार के पदार्थ बताइए।
  137. प्रश्न- व्याप्ति क्या है? व्याप्ति की स्थापना किस प्रकार होती है?
  138. प्रश्न- 'गुण' और 'कर्म' पदार्थों की विवेचना कीजिए।
  139. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन की समीक्षा कीजिए।
  140. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश डालिए?
  141. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक दर्शन में अनुमान का क्या स्वरूप है?
  142. प्रश्न- समानतन्त्र के रूप में न्याय वैशेषिक की व्याख्या कीजिए।
  143. प्रश्न- संयोग और समवाय पर टिप्पणी लिखिए।
  144. प्रश्न- मीमांसा से क्या तात्पर्य है इसे भली-भाँति समझाइये।
  145. प्रश्न- पूर्व मीमांसा किसे कहते हैं?
  146. प्रश्न- द्रव्यों की व्याख्या कीजिए।
  147. प्रश्न- मीमांसा दर्शन में ज्ञान के कितने साधन माने गये हैं?
  148. प्रश्न- उपमान किसे कहते हैं?
  149. प्रश्न- अर्थापत्ति किसे कहते हैं?
  150. प्रश्न- अनुपलब्धि या अभाव किसे कहते हैं?
  151. प्रश्न- मीमांसा के तत्व विचार की व्याख्या कीजिए।
  152. प्रश्न- मीमांसकों ने 'आत्मा' का क्या स्वरूप बतलाया है?
  153. प्रश्न- शंकराचार्य ने ब्रह्म के कितने स्वरूपों की व्याख्या की है?
  154. प्रश्न- ब्रह्म और माया क्या है?
  155. प्रश्न- ब्रह्म और जीव क्या हैं?
  156. प्रश्न- माया में कितनी शक्तियों का समावेश है?
  157. प्रश्न- "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" शंकर के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं? शंकर के ब्रह्म और जगत सम्बन्धी विचारों के सन्दर्भ में विवेचना कीजिए।
  158. प्रश्न- अद्वैत दर्शन में जीव के बंधन और मोक्ष पर एक निबन्ध लिखिए।
  159. प्रश्न- प्रभाकर मत में अख्यातिवाद क्या है? और यह किस प्रकार भट्ट मत के विपरीत ख्यातिवाद से भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  160. प्रश्न- शंकर का अद्वैत वेदान्त क्या है?
  161. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म में क्या भेद बताया गया है? विवेचना कीजिए।
  162. प्रश्न- शंकर के 'ईश्वर' विचार की व्याख्या कीजिये।
  163. प्रश्न- जीव किसे कहते हैं?
  164. प्रश्न- शंकर के अद्वैतवाद तथा रामानुज के विशिष्ट द्वैतवाद में अन्तर बताइए।
  165. प्रश्न- वेदान्त दर्शन किसे कहते हैं? शंकर के वेदान्त दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  166. प्रश्न- क्या विश्व शंकर के अनुसार वास्तविक है? विवेचना कीजिए।
  167. प्रश्न- रामानुज शंकर के मायावाद का किस प्रकार खण्डन करते हैं?
  168. प्रश्न- शंकर की ज्ञान मीमांसा का वर्णन कीजिए।
  169. प्रश्न- शंकर के ईश्वर विचार की व्याख्या कीजिए।
  170. प्रश्न- माया क्या है? माया सिद्धान्त की रामानुज द्वारा दी गई आलोचना का विवरण दीजिए।
  171. प्रश्न- रामानुज के विशिष्टाद्वैत वेदान्त से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  172. प्रश्न- रामानुज के अनुसार ब्रह्म क्या है? ईश्वर व ब्रह्म में भेद बताइए।
  173. प्रश्न- रामानुज के अनुसार मोक्ष व उनके साधनों का वर्णन कीजिए।
  174. प्रश्न- जीवात्मा के भेदों को स्पष्ट कीजिए।
  175. प्रश्न- रामानुज के अनुसार ज्ञान के साधन क्या हैं?
  176. प्रश्न- रामानुज के 'जीव सम्बन्धी विचार की व्याख्या कीजिये।
  177. प्रश्न- रामानुज के जगत की व्याख्या कीजिए।
  178. प्रश्न- विशिष्ट द्वैत दर्शन की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  179. प्रश्न- चित् व अचित् तत्व क्या हैं?
  180. प्रश्न- बन्धन और मोक्ष क्या है?
  181. प्रश्न- चित्त क्या है?

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